हर साज़ में होती नहीं यह धुन पैदा
September 11 2015
Written By
Gurjar Upendra
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभू लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुस्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मुहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
हर साज़ में होती नहीं यह धुन पैदा
होता है बड़े जतन से यह गुन पैदा
मीज़ाने-निशातो-ग़म में सदियों तुल कर
होता है हयात में तवाज़ुन पैदा
~ फ़िराक़ गोरखपुरी
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